यदि मनुष्य योगी-यति होकर भी अपने हृदय की विषय वासनाओं को उखाड़ नहीं फेंकते तो उन असाधको के लिए आप ह्रदय में रहने पर भी वैसे ही दुर्लभ है, जैसे कोई अपने गले में मणि पहने हुए हो, परंतु उसकी याद न रहनेपर उसे ढूंढता फिरे इधर-उधर।

जो साधक
अपनी इंद्रियोंको तृप्त करने में ही लगे रहते हैं,
विषयों से विरक्त नहीं होते,
उन्हें जीवनभर और जीवनके बाद भी दुख-ही-दुख भोगना पड़ता है। क्योंकि
वह साधक नहीं दंभी है।
*एक तो अभी उन्हें मृत्यु से छुटकारा नहीं मिला है, लोगों को रिझाने, धन कमाने आदि क्लेश उठाने पड़ रहे हैं और
*दूसरे आप का स्वरूप न जानने के कारण अपने धर्म कर्म का उल्लंघन करने से परलोक में नरकादि प्राप्त होने का भय भी बना ही रहता है।

सच्चे तीर्थ

जो ऐश्वर्य, लक्ष्मी, विद्या, जाति,तपस्या आदि के घमंड से रहित है, वे संतपुरुष इस पृथ्वीतलपर परम पवित्र और सब को पवित्र करने वाले पुण्य मय सच्चे तीर्थ स्थान है।

मृत्यु पर विजय कैसे प्राप्त करें?

जो लोग यह समझते हैं कि भगवान समस्त प्राणियों और पदार्थों के अधिष्ठान हैं, सब के आधार हैं और सर्वात्म भाव से भगवान भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्यु को तुच्छ समझकर उसके सिरपर लात मारते हैं अर्थात उस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं।

जो लोग भगवान से विमुख है वह चाहे जितने बड़े विद्वान हो उन्हें भगवान कर्मों का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों से पशुओंके समान बांध लेते हैं।

जो लोग भगवान के साथ प्रेम का संबंध जोड़ सकते हैं वह न केवल अपनेको बल्कि दूसरोंको भी पवित्र कर देते हैं अर्थात जगत के बंधन से छुड़ा देते हैं। ऐसा सौभाग्य भला, भगवान से विमुख लोगों को कैसे प्राप्त हो सकता है।

भागवत महापुराण स्कंध 10 अध्याय 87 श्लोक 27

*भगवान अनादि और अनंत है।*
जिसका जन्म और मृत्यु काल से सीमित है, वह भला उनको कैसे जान सकता है।

ब्रह्माजी, निवृतिपरायण -सनकादि तथा प्रवृत्तिपरायण-मरीचि आदि भी बहुत पीछे भगवानसे ही उत्पन्न हुए हैं।
जिस समय भगवान सबको समेट कर सो जाते हैं,उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता, जिससे उनके साथ ही सोया हुआ जीव उनको जान सके।

क्योंकि उससमय न तोआकाशआदि-स्थूलजगत रहता है और न तो महतत्वआदि-सूक्ष्मजगत।

इन दोनोंसेबनेहुए शरीरऔरउनकेनिमित्त क्षणमुहूर्तआदि कालकेअंग भी नहीं रहते।

उस समय कुछ भी नहीं रहता। यहां तक कि शास्त्र भी भगवान में ही समा जाते हैं।


*ऐसी अवस्थामें भगवान को जाननेकी चेष्टा न करके भगवान का भजन करना ही

सर्वोत्तम-मार्ग है।*

Every learned man knows very well that attachment for the material is the greatest entanglement of the spirit soul. But that same attachment, when applied to the self-realized devotees, opens the door of liberation.

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इस जीव के बंधन और मोक्ष का कारण मन ही माना गया है।विषयों में आसक्त होने पर वह बंधन का हेतु होता है और परमात्मा में अनुरक्त होने पर वही मोक्ष का कारण बन जाता है।

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