जो साधक
अपनी इंद्रियोंको तृप्त करने में ही लगे रहते हैं,
विषयों से विरक्त नहीं होते,
उन्हें जीवनभर और जीवनके बाद भी दुख-ही-दुख भोगना पड़ता है। क्योंकि
वह साधक नहीं दंभी है।
*एक तो अभी उन्हें मृत्यु से छुटकारा नहीं मिला है, लोगों को रिझाने, धन कमाने आदि क्लेश उठाने पड़ रहे हैं और
*दूसरे आप का स्वरूप न जानने के कारण अपने धर्म कर्म का उल्लंघन करने से परलोक में नरकादि प्राप्त होने का भय भी बना ही रहता है।